Saturday 1 April 2017

विवशता (पिता जी की मृत्यु पर)

आज फिर जीवन का एक स्तंभ
ध्वस्त हो गया मेरा।
एक बार फिर हिल गया, दहल गया
मेरे जीवन का भवन।
जीवन चक्र समाप्त होने का विधान
आज फिर आहत कर गया
मेरी स्थिरता को।
फिर से सामान्य होने का प्रयास
प्रारंभ हो गया प्रकृति के अनुरूप।
प्रतिपल असामान्य से सामान्य
होने का यह चक्र फिर से
प्रारंभ करने को विवश हूँ मैं।
एक स्तंभ मिला एक हुआ ध्वस्त
किंकर्तव्य विमूढ सी मैं केवल
दर्शक हूँ, असहाय, निराश, विवश?

निर्दोष त्यागी

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